बचपन की वो ख्वाहिसें...

बच्चे की बचपन की वो ख्वाहिसें.
ऐसी मानो खुले आसमान के परिंदे
मंदिर- मस्जिद, हिन्दू- मुस्लमान
से दूर और नासमझ, एक दम आजाद
खुद में गुल, खुश और बेपरवाह..
बच्चे की बचपन की वो ख्वाहिसें
उड़ने दो इन्हें आसमान की उचाईयों में
हकीकत के पिंजरों से बहुत दूर
जाति-पात और सरहद में कैद न करो इन्हें
उड़ने दो उड़ने दो उड़ानों दो
बच्चे की बचपन की वो ख्वाहिसें...



#YugalVani

'फौजी'

बारूदी बंदूख लिए
खड़ा मौत के बाजार,
रह रहकर ताकता दुश्मन
की हुंकार...
फौजी बनना उसने खुद चुना
दो रस्ते थे उसके सामने
फ़ौज या मौज
उसके सब साथी मौज में है
और वो फ़ौज में...
फौजी कहता है
मेरी किसी से दुश्मनी नहीं है
हालाँकि अब किसी से
दोस्ती भी नहीं है...
युगल तो बस उसकी 'गल' है
उसने पहले अपना घर जलाया
जब तक घर रहेगा,
लौटने की मंसा रहेगी,
कइयो को फ़ौज से मौज में लौटते देखा है
उसने अपने पड़ोस में
घर एक विकराल 'जाल' है...
जोर जोर दहाड़ता है वो फौजी
हम यहाँ शांत सोते है
बेखबर होके
चिंतित होता है वो फौजी
जाग जागकर...




#YugalVani

फाँसी पर हँसते हँसते चढ़ा था, मगर क्या इसलिए... ?

२३ मार्च, तारीख तो सबको याद रहती है, जिनको नहीं रहती है अगल-बगल वालो से या फेसबुक-ट्विटर से पता चल जाता है की आज के दिन १९३१ में किसी ने जान दी थी देश के लिए किसी ने ! हाँ अपना अपना जीवन दिया था इस देश को !
एक दिन अचानक से देश की हालत पता करने वो शहीद सैर पर निकला ! टहलते टहलते शाम हो गयी, किसी डगर से गुजरते हुए उसने एक ‘जमादार’ से पूछा, सब सही है न अब यहाँ, सब लोग आज़ाद है न, हमारी माँ- बहने सुरक्षित है न, खाना पीना मिलता है न सबको अब यहाँ, कोई किसी को लूटता तो नहीं है, किसान आराम से है न अब देश में..... आदि अनेक सवाल उस जमादार से पूंछ डाले !
बिना रोके ‘शहीद’ ने मुस्कुराते हुए बोला अब तो बहुत आगे बढ़ गए होगे हम, बहुत बदल गए होगे हम अब, ८२ साल हो गए, काफी वक्त बदल गया अब, सब मिलजुल कर रहते होगे सब.....
‘शहीद’ और सवाल करते इससे पहले जमादार ने पूंछा कहा घूम रहे हो, कैसी बाते कर रहे हो.... और उसका दिमाग चेहरे पर गया, जमादार मन ही मन सोचने लगा कही देखा है, पहचाना सा चेहरा है.... कही तो देखा है...
आपको कही देखा है’ इतना पूंछते पूछते उसे अचानक से याद आया ये ‘भगत सिंह’ है, उसने अपने बच्चो की किताबो में पढ़ा था !



जमादार बोला “आप तो भगत सिंह हो न, जो हिंदुस्तान के लिए ‘शहीद’ हो गए थे...?”
“हाँ मै भगत सिंह ही हूँ” मुस्कुराते हुए ‘शहीद’ बोले, अब तो सब ठीक है न मेरे देश में... ?
जमादार बोला हाँ साहब सब ठीक तो है, मगर ये “मेरे देश में” समझा नहीं ? अब आप पाकिस्तान के लाहोर में हो...
आपका मुल्क ‘हिदुस्तान’ सरहद के उस पार है !
इतना सुनते ही ‘शहीद’ पलट कर चल दिए, शांत, बिना किसी मुस्कान के ! मन ही मन सोचने लगे किस लिए “शहीद” हुआ था मै ?
चेहरे पर हंसी नहीं थी अब... आखें भीग आयीं थी ....
वोह इतना कमज़ोर नहीं था.. फाँसी पर भी हँसते हँसते चढ़ा था वह ...... पर आज आखें भीग आयीं थी.. जान दी थी उसने.... जान.....

मगर क्या इसलिए ‘जान थी उसने’ ?

न जाने क्यों इतना याद आते है

सुबह की वो छोटी छोटी बातें
छुट्टियों की फिर फिर मुलाकातें
सूरज की रौशनी में जवां इश्क
जिंदगी के बड़े बड़े ख्वाब
और तेरे और मेरे वो अल्फाज
न जाने क्यों इतना याद आते है...
कहीं दूर-दूर घूमने के नमकीन इरादे
कसमो में वो कच्चे कच्चे वादे
तेरी यादो में बिखरे बिखरे दिन
तारीखों के साथ जवां होती उम्मीदे
और रातो के यकीनी सपने
न जाने क्यों इतना याद आते है...
हर गुजरते दिन की यादो से
कोई कहो जरा ठहरो तो
बदलती तारीखों के वक्त से
कोई कहो वक्त बदलो तो
जिंदगी के मेले को कोई बता दो
तुम्हारे बाद खुद भी खो गया हूँ मै यहाँ
और बस तुम इतना सुन लो
तुम्हे बस "प्यार" था मुझसे
मुझे न जाने क्या क्या था की
अब भी खुद को करीने से लगा दूं मै
तुम अब भी,
न जाने क्यों इतना याद आते है...
न जाने क्यों...?



#YugalVani 

न जाने क्यों इतनी उदास है 'वो'

न जाने क्यों इतनी उदास है 'वो'
उसे नहीं पता क्या कितनी खास है 'वो'
उसे तो सिर्फ मोहब्बत है मुझसे
उसे न जाने क्या क्या तलाश है तुझसे
न जाने क्यों इतनी उदास है 'वो
ये खेल मोहब्बत का बस
एक 'हम' के एहसास में है
ये न तेरे 'खुद' की साँस में है 
और न ही उसकी प्यास में है...
न जाने क्यों इतनी उदास है 'वो
उसे नहीं पता क्या कितनी खास है 'वो'
आसमान के एक 'अधूरे' चांद की
'पूरी' ख्वाहिश में बैठी है क्यों तू ?
खाली मन और निडर वदन लिए,  
क्यों काली रात में बैठी है तू ?
न जाने क्यों इतनी उदास है 'तू'
तुझे नहीं पता क्या कितनी खास है 'तू'




जिंदगी की डगर में रोज खेलते थे तुम
अब 'युगल' न हुआ तो क्या हुआ
तुम ही हम बनकर खेल लो अब ये खेल
उदासी खोकर तुम्हे 'तुम' पाने में मजा आयेगा
तुम्हे नहीं पता क्या कितनी खास थी 'तुम'
आजमा के देख लो नव अंकुर'ण को,
न जाने क्यों इतनी उदास है 'वो'

उसे नहीं पता क्या कितनी खास है 'वो'
#YugalVani

'होली'

'होली'
क्या लिखू तुझ पर,
क्या तस्वीर बनाऊ,
न लफ्ज है और न ही रंग
तेरी खूबसूरती के बयान के लिए...
बचपन में कभी पेन्सिल से
काला गोला बनाकर
पीला रंग भरा था उसमे
जो 'आम' तो कभी 'सूरज'
बन गया था 'युगल'
तब तक यही था रंगों का मायना
मेरे इस संसार का...
फिर बाजार में बिकते दिखे
कागजो में लपेटकर कुछ रंग
गुलाबी, लाल, पीला, हरा
और सुनहरी... सब रंग
एक साथ, एक  दुकान में ऐसे थे
मानो कोई 'परी' रंगों से लिपटी हो
और दुकान के बाहर मानो
पूरे शहर में रंगीन धूप सी बिखर गई हो
किसी ने बताया ये "होली" है...
भींगे भींगे लोग,
मिठाइयों के साथ रंगीन धुप,
हँसते और दौड़ते बच्चे,
रात को होलिका की आग
और दिन में बुजुर्गो संग फाग
बड़ा रंगीन होता है ये त्यौहार, 'युगल'
कुछ रंगीन दिन में रंग नहीं खेल पाते
अगले दिन सड़क पर पड़े रंग छुडाते है
बच्चे टूटी पिचकारिया उठाते है और
अमीरों के यहाँ से कुछ मिठाइयाँ ले आते है
और 'माँ'
'माँ' सर पर घड़ा रख
रोज दूर-दूर से पानी ले आती है
रोज भीग जाती है,
उसकी होली तो रोज ही हो जाती है, 'युगल'    
#YugalVani