खुली चुनौती देता हमको ,बदता हुआ अँधेरा,
पल-पल दूर जा रहा हमसे ,उगता हुआ सबेरा !
निशा नाचती दिशा दिशा में ,उडी तिमिर की धूल,
अपना दीप जलना होगा ,झाझा के प्रतिकूल !!
आत्मा की चिर दीप्त वर्तिका को थोड़ा उकसादो ,
मांगो नहीं ज्योति जगती से , लौ बन के मुस्कुरा दो !
जगमग जगती के उपवन में,खिले ज्योति के फूल,
माथे से फिर विश्व लगायें ,इस धरती की धूल!!
अमा,क्षमा मांगे भूतल से ,भगे सघन अँधेरा,
अवनी का अलोक स्तम्भ बन ,जगे भारत मेरा !
आर्य संस्कृति के परवाने ,आओ सीना ताने ,
दीप बुझाने नहीं ,ज्वलित पंखो से दीप जलने !!
तब समझूगा तुम जलने की , कितनी आग लिए हो,
और दहकते प्राणों में , कितना अनुराग लिए हो!!!!!!!!