अब भी वही थी
आज भी वहीँ थी
वही रास्ता था
और वो वहीँ पर पड़ी थी
मेरी बस नजर जा पड़ी उस पर
सहम सा गया था दिल उसका
रोजाना का खेल बन गया था अब
ट्राफिक सिग्नल कप्तान था
मर्जी से रोकता था,
मर्जी से मिलाता था
चौराहे के पांच मिनट
उसे कभी गम में देख
दिल दहल जाता था
तो कभी ख़ुशी में पागल देख
था
दिल बहल जाता था
बिना हाथ
बिना पैर
अजीब हाल थे उसके
बस एक चेहरा सही था
जिसमे जान थी ,
एक मुस्कान थी
और उसकी सांसे थी
जिन्हें गुब्बारों में भर
भर कर
बेंचती थी वो गर्व से सान
से...
भिखारी नहीं थी वो
सबको मेहनत का पाठ
सिखाती युगल की 'आदर्श' थी वो...