"आत्मा"

‘आत्मा’ एक प्रश्न जो हमेशा मस्तिस्क में एक संदिग्ध अवस्था में रहता है !
आखिर क्या है ये आत्मा, इसकी वास्तविकता क्या है ?
किसी भी तथ्य पर कैसे भरोषा कैसे किया जाये इसका भी कोई वास्तविक प्रमाण नहीं है ! अध्यात्म की सुने या वैज्ञानिको की हमेशा संदेह की अवस्था रहती है !
“अन्यों अंतर आत्मा विग्यानमया” उपनिषदों में “आत्मा” के सन्दर्भ में कहा गया है ! लेकिन वास्तविकता यही है की जिस तरह किसी भी निर्जीव वास्तु से कार्य करवाने के लिए एक उर्जा की जरुरत होती है ठीक वैसे ही शरीर को कार्य के लिए उर्जा का निर्गमन में आत्मा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, और मानव शारीर में ‘दिमाग’ और ‘आत्मा’ ही ऐसे तो जीवित तथ्य है जिनकी सहायता से मानव शरीर चलता है !
जैसे किसी तत्व के लिए इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान आवश्यक होते है ठीक उसी प्रकार किसी शरीर की सबसे आवश्यक तथ्य ‘आत्मा’ ही है ! आध्यात्म में कहा गया है ‘आत्मा’ अजर अमर है ! लेकिन इसका रूपांतरण होता रहता है ! जिस तरह कोई व्यक्ति शारीर पुराने वश्त्र छोडकर नए वश्त्र धारण करता है उसी तरह एक आत्मा अपना स्थानांतरण एक शारीर से दूसरे शारीर में करती है !
असीम उर्जा के भंधारण, आत्मा की परिभाषा अतुलनीय है !
शरीर की चुनिन्दा चीज जिसके बिना शारीर का की अस्तित्व नहीं है ! शारीर जो की पञ्च तत्वों का आकर्षित ढांचा है अंततः इन्ही में बिलिन हो जाता है लेकिन आत्मा का केवल स्थानांतरण ही होता है !

क्या ऐसा होता है 'लोकतत्र' : अंकुर मिश्र "युगल"

तानाशाही, लोकतंत्र, राजतन्त्र या प्रजातंत्र !!

क्या कहे इस शासन को जिसमे खुद के आलावा किसी की सुनानी ही नहीं है, देश की एक अरब से ज्यादा आबादी की आवाज कुछ चंद नेताओ के जरिये दबाया जाना आखिर किस तथ्य का 'अंकुरण' है, लोकतान्त्रिक कमियों के बावजूद देश लिखे हुए लोक्तंत्र को मन रहा है उसके नियमों का पालन कर रहां है जनता को खा जाता है वो अपनी शिक्षा का प्रयोग नहीं कर रहा है लेकिन क्या उस लोकतंत्र या संविधान में कही लिखा गया है की देश में चुनाव लड़ने के लिए कोई निर्धारित शिक्षा होनी चाहिए और यही कारण है की देश के संचालको में अधिकतर अशिक्षित ही पहुचते है ! चुनाव लड़ने के लिए किसी निर्धारित शिक्षा का निर्धारित न होना हमारे लोकतत्र का खोखलापन दिखाता है ! दूसरा सबसे बड़ा खोखलापन जो भारतीय राजनीति को भ्रष्ट किये हुए है : चुनाव लड़ने की अधिकतम उम्र निर्धारित न होना निम्नतम उम्र तो निर्धारित कर दी लेकिन कोई भी नेता अंतिम साँस तक चुनाव लड़ सकता है ! ये तो लोकतान्त्रिक कमिय है जिन्हें जनता नजरअंदाज कर रही है, दूसरी ओर देश में जिस तरह का राजतन्त्र चल रहा और आज वही राजतन्त्र , तानाशाही बनती जा रही है उससे जनता कब तक बचेगी ! देश में राष्ट्रपति चुनाव पक्तिबद्ध है, प्रत्यासी का चयन राजनैतिक दल कर रहे है , कुछ प्रत्यासी अपने आपको इस दौड में ला रहे है लेकिन सोचनी बात यह है की देश के महान व्यक्तित्व भारत रत्न : "अब्दुल कलाम " जो एक अरब से ज्यादा लोगो की पसंद है , को राजनेताओ ने इस पद से दूर क्यों रखा हुआ है ! आखिर वो पद "देश के प्रथम नागरिक" का पद होता है और उसी पद के लिए देश की आवाज नहीं सुनी जा रही आखिर उनमे कमी क्या है :
१. उनमे निर्णय नेले की क्षमता है !
२. महान वैज्ञानिक है , पूरा देश उन्हें पसंद करता है !
३. देश के विकास के बारे में सोचते है !
४. किसी दल विशेष के लिया काम नहीं करते !
५. उन्हें किसी की चलूसी करनी नहीं आती !
यह प्रश्न किसी व्यक्ति विशेष का नहीं है यह प्रश्न है पूरे देश का ! जो किसी दल या राजनेता से नहीं यह प्रश्न है भारत के संविधान से, भारत के सुप्रीम कोर्ट से ! किसी राजनेता या दल से प्रश्न पूंछने का कोई औचित्यही नहीं है ! सभी घटक है लेकिन संगठित है ! आपकी कूटनीतियो की किताब के नियम कभी निराधार नहीं जाने देते ! सोचनीय लेख है , संविधान में परिवर्तन की जरुरत है , यदि ऐसा होता है लोकतंत्र तो हमें नहीं चाहिए लोकतत्र !!
क्या जनता निराधार है ???

“इश्क”, अतुलनीय भारत की अतुल्य पहचान : अंकुर मिश्र “युगल”

इश्क पर जोर नहीं,
ये तो वो ‘आतिश’ है ग़ालिब !
लगाये न लगे ! बुझाये न बुझे !
उपर्युक्त पंक्ति वैसे तो साधारण है लेकिन वास्तविकता असाधारण है,शब्द छोटा है, लेकिन किसी व्यक्तित्व को “साधारण से असाधारण या असाधारण से साधारण” बनाने में अहम भूमिका होती है! शादियों से चली आ रही इश्क की कहानिया तो सभी ने सुनी ही होगी लेकिन इसी शब्द पर आधारित “सत्यमेव जयते” देखने के पद दिल दहल जाता है, “प्यार, मोहब्बत, इश्क, लव” इन खूबसूरत शब्दों को वास्तव में किन विषम परिश्थितियों से गुजरना पड़ता है ! जैसा कहा जाता है “ इश्क :लगाये न लगे ! बुझाये न बुझे !” इस जीवन से कोई जितना दूर है उतना दूर है लेकिन एक बार जिस व्यक्तित्व ने अपना पदार्पण कर लिया उसे यहाँ से निकलना “दूभर” हो जाता है ! इस “अंकुरित” प्यार से या तो “युगल” बन जाते है या फिर ऐसी कहानिया सुनने को मिलती है जो एक परिवार को विखंडित कर देती है ! भारतीय संस्कृति के रीती-रिवाजो के हिसाब से अधिकतम ग्रामीण परिवार इए तरह के रिश्तों को स्वीकार नहीं करते जो “आज के भारत” की प्रमुख समस्या बनी हुयी है वाही शहरी जीवन में नजर डालने से पता चलता है की यहाँ ऐसे सम्बन्ध में रूकावट तो कम है लेकिन सम्बन्ध स्थापित होने के बाद संबंधो के तथ्य नकारत्म है ! वहाँ कुछ न कुछ वास्तविक समबन्धो में गिरावट आ जाती है ! इस स्थिति में कहा के “इश्क” को अच्छा समझे ?????
“सत्यमेव जयते”
के जरिये कई ऐसे कारण निकलकर आये जो “प्यार और इश्क” जैसे शब्दों को बदनाम किये हुए है , जैसे परिवार के जातिवाद का जुल्म, बेटे-बेटियों की असाधारण हत्याए, पंचायतो का बहिष्कार, ‘खापो’ की मनमानी ....... इत्यादि ! कुछ भी हो मनमानी किसी को हो, समाज की मर्यादाओ का बहाना हो या कुछ और हो , कुछ बहके लोगो की मनमानी से ऐसे रिश्तों को कुछ परम्पराओ के अधर पर अपने अधर पर जुर्म घाषित करना बिल्कुल गलत है ! “इश्क” के जरिये ऐसे सम्बन्धो का निर्माण होता है जो जीवनपर्यंत के लिए जरुरी है और जीवन में कभी समस्याए नहीं आती ! आज के समाज के लिए परिवर्तन जरुरी है, लोगो को समझना होगा की यदि किसी का जीवन हमारी रुढिवादिता को तोड़कर बनता है तो हमें तोडनी होगी ये पुराणी रुढिवादिता, रोकनी होगी पंचायतो की मनमानियां ! समस्या हमारी है पहला कदम हमें ही उठाना होगा !!
एक महान प्रेमी-दोस्त का कहना है :
“प्यार करना पाप नहीं है और विरोधी हमारा बाप नहीं है !”
प्रेम का विकास हो, प्रेमी प्रमिकाओ में में विश्वास हो,
प्रेम विरोधियो का नास हो, गर्व से कहो हम प्रेमी है, अपराध-बोध से नहीं !!
हम सब एक है : सत्यमेव जयते !!