हाय रे परिवर्तन ...........


मेरे पूज्य बाबा श्री श्री धर मिश्र जी द्वारा 8 दिसंबर १९५० को जब यह कल्पना की गयी थी की एक मानव को ऐसी भी
जीवन यात्रा करनी पड़ेगी की जिसमे उसका ह्रदय ही केवल उसका साथ देगा शेष सांसारिक दिखावट केवल दिखावट ही रह जाएगी तब बाबा को ''कवि सम्मलेन'' में महत्व नहीं दिया गया और उनका मजाक उड़ाया गया !
पर आज की दशा देख कर तो लग रहा है की मानव का ह्रदय भी उसके साथ नहीं है और वह मात्र एक पुतला बनकर रह गया है
उनकी उस कविता को मै यहाँ प्रकाशित कर रहा हू !
आशा है की आप इसे पड़कर उस ''सत्य'' की अनुभूति करेगे जिससे ''आप और हम '' महशूश रहे है.!
यदि उसमे आप को भी कोई त्रुटी मिले तो आप कृपया मुझे दोष दीजियेगा मेरे बाबा को नहीं क्युकी मैंने इसे पब्लिश करने की अनुमति बाबा से नहीं ली थी, लेकिन आज की दशा देखकर और इस कविता में समानता देखकर मै इसे पब्लिश करने से अपने आप को नहीं रोक पाया !
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वाही आशा के झिलमिलाते तार,
निराशा की टूटी झंकार,
प्रणय के गीत मिले अनमोल,
उसी में मिली प्यार की पीर,
झूलता सा एक पागल मन,
ने पाया पलकों कुछ नीर !!
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बासते बदल छितराए,
अरे घर सावन ही आयें,
लगे होने आनंदाचार,
पधारी अल्वेली सुकुमार !!
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छुपाये नयनो में एक प्यार,
दवी आशाओ के ही मर,
''न ठहरा लेकिन यह कुछ दिन
मांग सिंदूर भरी वैरिन !!
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वही अलको के सुखमय घन,
अभी जो बरसाते थे प्यार,
आज मसकन से विथराए,
समेटे आशा का श्रंगार !!
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शेष रह गया ह्रदय साथ ,
लगा जब परिवर्तन का हाथ !!!!!!!!!