शाम हो चुकी थी, नजरे घडी पर थी...
सात बजते ही मै अपना लैपटाप का बैग उठाकर बाहर निकलने लगा तभी किसी कोने से एक आवाज आयी और उसे सुनकर उस केबिन में पंहुचा जहाँ से आवाज आई थी !
“कानपुर जाना है, कल सुबह जरुरी है, ‘बहुत जरुरी’....”
एक आदेश भरी आवाज आयी, और साथ में ही ट्रेन के टिकट हाथो में थमा दिए ! आफिस में दो शब्द बहुत जरुरी होते है : “बहुत जरुरी...”
मैंने बैग की चैन खोलकर टिकट अन्दर रखे और घर के लिए निकल पड़ा ! रास्ते भर जरूरी काम के बारे में सोचता रहा ! सुबह सुबह निकलना है, पैकिंग करनी है, इतना लम्बा रास्ता है..... बाते दिमाग में चल रही थी !
घर में रोज बात हो जाती है इसलिए ये बात दिमाग में नहीं आई की ‘कितने दिन हो गए कानपुर नहीं गया’...
सुबह हुयी जल्दी जल्दी बैग उठाया और ट्रेन के लिए निकल पड़ा... ६ घंटे ट्रेन में चलने के बाद कानपूर पंहुचा... स्टेसन से बाहर निकला तो काफी बदला बदला सा नजारा था ! अब बड़ी बड़ी इमारते खड़ी थी यहाँ, रिक्शो और ऑटो की लम्बी लम्बी लाइने लगी थी, शोर अब पहले से ज्यादा हो चुका था... सब कुछ बदल गया था...सब कुछ !
तभी पहले से बुक टैक्सी वाले का फ़ोन आया वो मेरे सामने ही खड़ा था, उसने मुझे बैठाया और चलने लगा, रास्ते में चलते हुए अचानक वो रास्ता दिख गया जहाँ से गाँव जाया करते थे यही एक छोटा सा स्कूल था, गाँव की ध्यान तो इतनी नहीं आई मगर स्कूल दिमाग में ऐसे घूमने लगा मानो आँखों के सामने ही आ गया हो, वैसे यहाँ से स्कूल काफी दूर था!
.................मगर ६ घंटे में वहां से होकर कानपूर वापस आ सकता हूँ..... ऐसा मैंने सोचा !
“ड्राइवर से कहा जल्दी चलो, १२ बजे तक मेरा मेरा सेमिनार ख़त्म हो जायेगा... वहां से निकलकर स्कूल गया तो आराम से वापस आ जाऊंगा.... कैसा होगा अब वहां का माहौल... मिट्टी का हुआ करता था कभी कही अब वो भी न बदल गया हो....
कई ऐसी बाते दिमाग में दौड़ने लगी, सोचते ही सोचते सेमिनार हाल आ गया, अभी १० बजे थे ११ बजे से मेरा सेमिनार था.... ११ बजते ही मैने अपनी प्रेजेंटेसन शुरू कर दी !
अभी भी १२ बजने में ५ मिनट कम थे और मैंने सभी स्लाइड्स ख़त्म कर दी ! जल्दी जल्दी वहां से निकल....
“काश ड्राइवर ने खाना खा लिया हो.....” सोचते हुए जैसे ही बाहर पंहुचा, ड्राइवर सोफे में बैठा कोई अंग्रेजी पत्रिका में घूर रहा था और मुझे देखकर ऐसे खड़ा हुए जैसे, मेरे मरने की खबर सुनने के बाद उसने मुझे दोबारा जिन्दा देख लिया हो....
“तुमने खाना खा लिया है ?” मैंने पूंछा...
“जी सर...” उसने जबाब दिया...
मैंने उससे उस जगह चलने को बोला, जिसके लिए दिमाग में समुन्दर तैर रहे थे !
पहले मुझे लगा ड्राइवर को परेशानी होगी मगर, मगर उसका जबाब ऐसा आया जैसे वो भी उसी स्कूल से पढ़ा हो और वहां जाने के लिए लालायित हो... उसने बिना रास्ता पूंछे गाड़ी ऐसी दौड़ाई जैसे रोज का आना जाना हो....
मुझे उसने दो घंटे में उस जगह खड़ा कर दिया, मगर ये क्या ....?
“कच्ची से सड़क हुआ करती थी यहाँ तो...?”
“पूरे स्कूल में कमरे कच्चे थे...”
“बहुत सारे पेड़ थे.....”
“एक चाचा “जामुन” बेचते थे यहाँ....”
ऐसे कई प्रश्न मैंने ड्राइवर से दाग दिए... मगर वो किसी एक का भी जबाब नहीं दे पाया...
फिर मै हिम्मत करके उस एसी गाड़ी से बाहर निकला और एक बड़े से गेट के अन्दर अपने कदम रखे, जैसे ही थोड़ा सा अन्दर गया जामुन की डलिया दिखने लगी !
हाँ वहां कोई जामुन बेच रहा था, सोचा वही चाचा होंगे, जिनके पास से बचपन में जामुन लिया करते थे. मगर नजदीक पहुचने पर देखा की एक बूढा आदमी है वहां ! जो ऊपर सही से देख भी नहीं सकता !
.... जब बचपन में स्कूल आते थे तो झुण्ड का झुण्ड जामुन खरीदने पहुचता था, मगर खरीदता एक था बांकी दोस्त चाचा को बातो में लगाकर उनकी जामुन चुरा लेते थे ! बाद में बटवारा होता था सभी में, और खुशिया मनाई जाती थी की कैसे मैंने चाचा को बातो में उलझाकर जामुन उठाई ! कई दिनों तक डींगे मारते रहते थे और ४-५ दिन बाद फिर से जामुन ले आते थे.... जब चाचा थे यहाँ !
मगर ये कौन है ?
फिर मै जब ज्यादा पास गया और उन्हें ध्यान से देखा तो नजारा वही था, ये वही चाचा थे मगर अब बूढ़े हो चुके थे ! डलीया भी वही थी, मगर अब जर्जर हो चुकी थी इसलिए रस्सी के टुकड़ो से बंधी थी, डालिए में कुछ जामुन थे साथ में रखे थैले में कुछ जामुन थे ! उस समय के हिसाब से बीस और आज के हिसाब से २००-२५० रुपये के होंगे!
मै ये सब देख-देख कर सोच ही रहा था की चाचा (बाबा) ने अपने हाथो में कुछ जामुन उठाये और मेरी तरफ बढ़ा दिए, और लड़खड़ाती आवाज में बोले...
“बेटा ले लो ताजे है बिलकुल, मीठे है बहुत, तो खा कर देख लो....”
मगर मै खड़ा देखता रहा, शांत था कुछ बोलने की हिम्मत नहीं थी बस सोच रहा था इन्ही के जामुन मैंने चुराकर खाए थे और बाद में इनका ही मजाक उड़ाया था….
“बेटा एक खाकर तो देखो,मीठे है बहुत... ” बाबा ने अपना सर ऊपर करते हुए जामुन दिखाए....
अब मुझसे रहा नहीं गया, अन्दर ही अन्दर हजारो प्रश्न दिमाग में गूंज रहे था, मै उनके पास जाकर बैठ गया...
“बाबा पहचाना मुझे...?”
“कहा रहते हो, घर में और कोई नहीं है क्या...?, आप अब भी क्यों बैठते हो आकर”
“कितने साल से जामुन बेच रहे हो...?”
मैंने बिना सोचे कई प्रश्न पूंछ लिए, बाबा शांत थे मै उत्तर सुनने का इंतजार करने लगा, काफी देर बाद लड़खड़ाती आवाज में बोले...
“नहीं बेटा, कौन हो तुम?”
“पीछे झुग्गी में रहता हूँ, घर में हम दो ही लोग है, एक बेटा था मगर अब...........”
“अब तो याद भी नहीं है कितने साल हो गए.....”
इस तरह के उत्तर सुनके मेरी कुछ आगे पूछने की हिम्मत नहीं हुयी, और सोचने लगा कैसे आते होंगे यहाँ तक, लड़का भी लाठी है जो कभी भी डगमगा जाती है, कितने जामुन बिकते होंगे यहाँ कभी बच्चे खरीदते है तो कभी नहीं खरीदते और उनमे से कुछ......
अब मेरी आँखों में हलके हलके आंसू आ चुके थे !
..... उनमे से कुछ चुरा भी लेते है ! कैसे चलता होगा गुजरा इनका झुग्गियों में !
“बेटा ले लो न बहुत मीठे है, खाकर तो देखो.....” “कुछ तो खरीद लो....”
बाबा की एक ऐसी मीठी आवाज जिसने मेरी आँखों में आंसू और बढ़ा दिए..
मैंने बाबा के हाथो वाले जामुन अपने हाथो में लिए.. बाजुओं से अपनी आँखे पोंछी और पार्ष से १००० रुपये नोट निकलते हुए बाबा को दिया !
“कितनी दे दूँ बेटा...” बाँट टटोलते हुए बाबा ने कहा...
“बाबा मैंने ले लिए है...”
“बेटा वो तो ५ रुपये की भी नहीं है...” और बाबा ने दिया हुआ नोट अपनी आँखों से ढंग से देखना चाहा...
“बेटा ये कीतेने का है...”
“५० रुपये है बाबा” बाबा से इतना बोलते ही मै खड़ा हुआ और टैक्सी की तरफ बढ़ने लगा, तभी आवाज आयी
“बेटा बांकी बचे पैसे तो ले लो, हिसाब तो कर लो”
मैंने वहीँ से कहा “बाबा आज पूरा हिसाब हो गया”...
......जामुन खाते हुए आंगे बढ़ा और गाड़ी में बैठ गया...हिसाब तो अब भी बांकी है !
और जब हथेली में रखे उन जामुनो को मैंने देखा तो मानो ऐसा लग रहा था की जैसे....
वो मुझ पर घूम घूम और घूर घूर कर हँस रहे हो.... उस नादानियत पर.... :(