सच में "मर्दानी" ही थी वो "मर्दानी"...

शाम को शर्मा जी की दुकान की चाय न मिले तो ऐसा लगता था कुछ न कुछ मिस हो रहा हूँ,  साथ में दोस्त होते थे तो हंसी मजाक भी हो जाता था, मन को शांति मिलती थी और ख़ुशी के ठहासे सुनकर आसपास वाले भी हंसाने लगते थे ! उन दिनों की सभी यादे यादगार है ! फेसबुक और इंटरनेट के होने के बावजूद इनका ज्यादा ज्ञान नहीं था ! बस कभी कभी जी.मेल और गूगल खोल लिया करते थे !
और कई ऐसी बाते है जिन्हें सुनकर आप हसोगे.... :)

फ़िलहाल शर्मा जी की दुकान की बात है जहाँ बैठकर मै रोज अपने दोस्तों के साथ बैठकर चाय पीता और ठहाके लगाता था ये किस्सा महीनो से चल रहा था,  मगर उस दिन की बात कुछ अलग थी, चाय पीते हुए नजर एक लड़की पर पड़ी, उम्र लगभग २३-२४ होगी, गोरी और खूब लम्बी थी वो,  साथ में एक बच्चा था करीब ६-७ साल का, स्कूटी में थे दोनों,  बच्चे ने उस लड़की को जकड़कर पकड़ रखा था,  बच्चे का चेहरा तो नहीं दिखा मगर हाँ उस लड़की के होटो से ऐसा लग रहा था जैसे दोनों बाते कर रहे थे ! हँसते हुए...!
पता नहीं क्यों ? मगर उसे देखकर एक मुस्कराहट सी आ गयी चेहरे में और उसने इस मुस्कराहट को देख लिया जबाब में मुस्करा भी दिया और आगे चली गयी ! और हम दोस्त, चाय पीटे हुए फिर से वैसे ही बाते करने लगे !

अगले दिन फिर से शाम को चाय के लिए इकट्ठे हुए, नए जोश के साथ चाय ली और बैठ कर पीने लगे तभी सामने से उस लड़की को फिर से आते हुए देखा वैसी ही उर्जा थी उसके अन्दर,  आज फिर कोई बच्चा उसके पीछे बैठा था मगर कुछ बड़ा था काले रंग का चश्मा पहन रखा था दोनों ने और हस हस कर बाते कर रहे थे ! फिर अचानक से नजर मिली और हम दोनों मुस्करा दिए ! मगर तभी एक आवाज आई देखो देखो "मर्दानी" आई,  मेरा कोई दोस्त ही रहा होगा इस आवाज में... ! वो चली गयी फिर हम बाते करने लगे अपने बारे में, चाय के बारे में और उस मर्दानी के बारे में ! मुझे ऐसे लगा जैसे ये आवाज उस तक पहुच गयी होगी...
इसी तरह इस मुस्कराहट और और उसके आने जाने का सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा ! हमारे चाय पीने और उस मर्दानी का वहां से गुजरने का वक्त भी एक ही हो चूका था ! हर शाम को स्कूटी में आती थी रोजाना कोई न कोई बच्चा पीछे बैठा होता था और दोनों में बाते चल रही होती थी, दोनों हस रहे होते थे !
अब तो इस रोज रोज के हसने और चाय पीने में और मजे आने लगे थे, मर्दानी की मुस्कान और मरदानी सुन्दर जो थी इतनी... अब उसके बारे में जानने की इच्छा होने लगी थी मगर वो आस पास कहीभी अपनी स्कूटी नहीं रोकती थी !
पता नही कहा से आती होगी, कहा जाती है... अनेक प्रश्न दिमाग में आने लगे थे ! अब जब भी हम उसे देखकर “मर्दानी” कहते थे वो सुनकर और तेज मुस्कुरा देती थी ! ये सब देखकर मुझे लगा कुछ तो है.. कुछ तो अलग है... कुछ बात तो है इस सलाम नमस्ते में, मुझे जानने की उत्सुकता थी !
अगले दिन मै एक दोस्त के साथ तैयार था, एक बाइक में... जैसे वो पास आई... सब बोले मर्दानी... उसने सुना और फिर मुस्कराकर निकल गयी, हम दोनों भी पीछे लग गए , हम धीरे-धीरे चल रहे थे मगर उसकी स्कूटी हमारी नजरो के दायरे में थी ! टेढ़े-मेढ़े रास्तो में चलने के बाद उसकी स्कूटी एक बड़ी सी ईमारत के सामने जाकर रुकी ! मैंने अपने दोस्त और बाइक को ईमारत से थोड़ी दूर रोक दिया और मै पैदल चलने लगा !
उसने अपनी स्कूटी धीरे धीरे गेट के अन्दर ली, बच्चा अब भी स्कूटी में ही बैठा था ! अन्दर जाकर उसने बच्चे को गोद में उठाया और पास के चबूतरे में बैठालकर बाते करने लगी ! ये सब मै गेट की सलाखों के पीछे से देख रहा था !
तभी उसने उस बच्चे का चश्मा हटाया और उससे बाते करती रही, बच्चा की निगाहे कही और थी लड़की की कही और, बच्चा अपना सर हिलाए जा रहा था ! फिर मैंने ध्यान से देखा तो मुझे नजर आया की उस बच्चे की आखे नहीं है, वो होटो और हाथो से बाते कर रहा था, मगर खुश था एक मुस्कान थी उसके होटो में.... काफी देर तक वो दोनों साथ बैठे रहे और  फ़िर किसी तरह वो उसे अंदर ले गयी।

ऐसा लगा जैसे किसी ने अंदर से मुझे जंझोर दिया हो , मुझे सब समझ में आ गया था, गेट से दो कदम पीछे हटा और ऊपर लगे बोर्ड पर नज़र गयी "सक्षम - ए प्लेस फार ब्लाइंड एंड लो विजन पर्सन्स " , आँखें पानी से भरी हुईं थी फिर भी बोर्ड पर लिखा साफ़ साफ़ नज़र आ रहा था। मेरे पैर अब जवाब दे रहे थे, मैं गेट से हट कर दीवार पर पीठ सटा कर आसमान तांकने लगा। सीने में एक अजीब सी घुटन होने लगी थी।
ये मुझसे क्या हो गया, ये मैंने क्या कर दिया, ये रोज़ इस तरह यहाँ अकेली आती है, अकेली जूझती है और मैं उसका मज़ाक उड़ाता रहा। और उसने क्या किया, बस मुझे देख कर मुस्कुराती रही, सिर्फ मुस्कुराती रही। किस मुश्किल से उसने उसे स्कूटी से नीचे उतारा था , ना जाने कैसे बैठाया होगा स्कूटी पर, ना जाने वो ये रोज़ कैसे कर लेती है।  कैसे हैं ये लोग, कहाँ से लाते हैं ऐसा दिल, कहाँ से लाते हैं ऐसी हिम्मत, मैंने दोनों हथेलियों से आँखें पोंछी , और फिर उन लोहे की सलाखों से झाँकने लगा।
मन किया की उससे जा कर माफ़ी मांग लूं , पर हिम्मत नहीं हुई।
कदम वापस लिए,  दोस्त और बाइक को साथ को लिया और वापस शर्मा जी दुकान की तरफ जाने लगा। उसका मुस्कुराता वो सुन्दर सा चेहरा अब भी ज़हन में आ रहा था।

सच में मर्दानी ही तो थी वो ,मर्दानी | किसी मर्द भी में इतनी हिम्मत नहीं हो सकती है....

1 टिप्पणी:

प्रकाश गोविंद ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रेरणादायी