''सत्य और साहित्य'' : 'अंकुर मिश्रा' की हिंदी रचानाएँ (कहानियाँ और कवितायेँ )
वालमार्ट के पास है दो ही विकल्प , रुकेगा या लूटेगा : अंकुर मिश्र "युगल"
इतिहास गवाह है भारत में जितने भी विदेशी आये है उनके पास केवल दो ही विकल्प थे : उन्होंने या देश को लूटा है या फिर यही पर बस गए है ! मुग़ल शासको ने देश में आक्रमण किया लेकिन उनकी नीति देश को लुटाने की कभी नहीं थी, उन्होंने यही बसकर अपने परिवार के साथ जीवन यापन किया ! लेकिन वाही यदि हम अंग्रेजो के शाशन काल में नजर डाले तो विपरीत था , उन्होंने देश में आना इसलिए उचित समझा क्योंकि हम सोने की चिड़िया थे और हमें खोखल करना उनका लक्ष्य था जो उन्होंने किया और बाद में किसी अंग्रेज शासक ने ये भी लिख दिया की हम तो मुठ्ठी भर लोग आये थे भारत से एक् पत्थर ही कफी था हमें भागने के लिए, लेकिन अब कोई क्या कर सकता है उस अंग्रेज का और हमारे जैसे भारतवासियों का जो उन नेताओ के गुलाम बनकर बैठ जाते है जीनको वो खुद चुनकर भेजता है !
जिस तरह से किसी समय में पेप्सी और कोक ने देश में पदार्पण किया था और हम नेताओ की सुनते रहे थे और हसते हसते आज गुलाम बन बैठे है इसी तरह हो सकता है वालमार्ट भी एक् दिन हमारा राजा बन बैठे लेकिन ऐसी केवल कल्पना की जा सकती है !
हमारे नेताओ में संसद में जिस तरह से वालमार्ट को लेन की जद्दोजहद की वो वास्तवमें सराहनीय है, विरोध करने वालो की कुतर्क और पक्ष में होने वालो के तर्क अब तक जनता के समझ में नहीं आये ! जिस वालमार्ट को जनता के लिए लाया जा रहा है उस जनता से तो एक् भी बार नहीं पूंछा गया की ये आना चाहिए या नहीं ! राज्यसभा और लोकसभा के अंदर आपस में आंखमिचौली खेलकर एक् और प्रधितना की जंजीर जकड दी नेताओ ने देश पर !
और सबसे सरल बात तो यह है की ईस्ट इण्डिया कंपनी ने कोलकता से पदार्पण किया था तो उसे दिल्ली तक आने में समय लगा लेकिन इस वालमार्ट का पदार्पण तो दिल्ली से ही हो रहा है तो उसे तो और सरलता होगी अपने लक्ष्यों को पाने में ! वो चाहे तो देश में रुक सकता है या फिर लूट कार यहाँ से जा सकता है ! भारत के अंदर अभी तक व्यापारिक कंपनियों ने दो ही रवैये अपनाए है, अब सोचना वालमार्ट को है !
अभी एक् नए दल आम आदमी के मुखिया ने कहा की वालमार्ट के लिए जन-मत होने चाहिए, उन्हें तो जनता के बारे में यही सोचना चाहिए जिस देश में कसाब और अफजल गुरु जैसे आतंकवादी को सालो तक मेहमान बनाकर रखा जाता है , भ्रष्टाचार को रोकने लिए कोई कड़ा कानून नहीं होता, पेप्सी और कोक जैसी बाहरी कंपनियों का शाशन होता है वहाँ इस वालमार्ट के लिए कैसा जनमत !
यहाँ तो यह कहना अनुचित नहीं होगा की जनता का जनमत केवल एक् दिन होता है चुनाव में और उसी दिन उसकी कीमत होती है उसके बाद या पहले जनता केवल और केवल नेताओ की नौकर(सेवक) होती है! इस देश में कैसा जन-मत ! यहाँ आज जन-मत की कीमत होती तो क्या करोड़ो के घोटाले करने वाले कलमाड़ी , यदुरप्पा जैसे नेता जिन्दा होते है ! जनता का काम है सर्कार द्वारा थोपे गए कानूनों पर अम्ल करना ! उनके द्वारा आपस में आरक्षण औअर क्षेत्रवाद की राजनीती में हिस्सा लेना बस !
देश की दशा पर दिल से नहीं दिमाग से सोचने की जरुरत है : अंकुर मिश्र ‘युगल’
देश में परिवर्तन के लिए हमेशा से लोकतान्त्रिक परिवर्तन की जरूरत रही है, वैसे तो आज की राजनीति को देखते हुए देश में लोकतंत्र है , ऐसा सोचना भी गुनाह है ! देश को बुरी तरह से तानाशाही सरकार ने जकड़ रखा है, और वो भी ऐसे दल ने जिसे देश की आजादी में प्रमुख सहायक माना जाता रहा है ! जिसके जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओ की वास्तविकता को नकारते हुए लोग आदर्श मनते है, जिस दल ने ५० से ज्यादा सालो तक आजाद देश में शासन किया हो और देश की हालत उस मझधार तक न पहुच पाए जहां के लिए वो वांछनीय हो ऐसी सरकार को क्या कहेंगे ??
कहने को तो इस दल में विद्वानों का भंडार है लेकिन उनकी विद्वता का इस्तेमाल आखिर किस देश के लिए होता है ? देश की वर्तमान समस्याओ को बताने की जरुरत नहीं है एक साधारण आदमी भी प्रत्येक समस्या से अवगत है ! जरुरत है निवारण की और निवारणकर्ता की !
ऐसी समस्याओ को देखते हुए हुए देश के राजनैतिक गलियारे में एक नए दल का आवरण, हो सकता है देश को एक नई उर्जा प्रदान करने में सहायक हो सके ! अरविन्द केजरीवाल जिस व्यक्ति को आज किसी पहचान की जरुरत नहीं है !
देश में समाज सेवक से राजनेता की ओर मुडने वाले इस व्यक्ति ने पिछले एक साल में समाज सेवक अन्ना हजारे के साथ जन जागरण का जो कार्य किया है वो वास्तव में सराहनीय रहा है ! अब उनके इस राजनैतिक दल को जनता का कैसा नजरिया मिलता है यह देखने लायक होगा !
वैसे आज की नजर से देखा जाये तो देश की बिगड़ती समस्या के निवारण के लिए हमेशा किसी न किसी नए दल ने ही परिवर्तन किया है और आज के राजनैनिक दलों और राजनेताओ को देखते हुए फिर से एक बदलाव की जरुरत देश को है ! पक्ष और विपक्ष दोनों ही अपने कर्तव्य भूल चुके है ! दोनों का यह नजारा हिया दिन में संसद के अंदर कुर्सिय फेंकते है और रात में एक् साथ भोजन करते है , आखिर इसका मतलब क्या निकला जाये ?? क्या जनता इन पार्टियों के लिए ‘नौकर’ है !!
जिस सरकार को आम जनता ने चुनकर वहाँ तक पहुछाया है जो देश के लिए नौकर है वो आज अपना पद भूलकर आम जनता को नौकर समझ रहे है ! जाब कभी भी मनुष्य अपना कर्तव्य भूलकर मालिक बनाने की गलती करता है तब-तब उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है ! अब बारी है इन तानाशाओ की ! अभी तक देश में कमी थी विकल्प की लेकिन आज देश को केजरीवाल ऐसा विकल्प दे सकते है जो इस भ्रष्टता को समाप्त करने में सहायक हो सकता है !
आज यहाँ भी अनेक सवाल खड़े हो रहे है , आखिर इन पर विश्वास क्यों करे ?
इसके लिए एक् सीधा सा जबाब है : एक् बार आप जातिवाद , क्षेत्रवाद और सभी प्रकार के वादों को छोड़कर विकास के बारे में दिल से न सोचकर दिमाग से सोचो आपका दिल भी आपको इसी विकल्प की ओर इसारा करेंगे ! और ऐसा करने के बाद उन आलोचकों को भी जबाब दे सकते है !
ऐसा लगता है दिल्ली गलियों से ये आवाजे भी आती है ,जिन्हें भैसे चराना था वो सरकारे चलते है
गडकरी को भाजपा से नही भारत से निकालना चाहिए : अंकुर मिश्र 'युगल"
कभी विकास के लिए प्रसिध्धि पाने वाले महान राजनेता अटल बिहारी बाजपेई जैसे प्रधानमंत्री देने वाले राजनैतिक दल भाजपा की आज की राजनैतिक दशा इस तरह दयनीय हो सकती है , ऐसा शायद ही किसी ने सोचा हो ! जिस राजनेता को राजनीती की परिभाषा माना जाता है, जिसने अपने कार्यकाल में विकास के इतिहास रचे उस महानेता की पार्टी की इस दयनीय दशा का जिम्मेदार आखिर कौन है ??
इस प्रश्न का उत्तर किससे पूंछे, जनता से भाजपा के आलाकमान से या फिर खुद बाजपेई जी से ??
और वास्तविकता की नजर से देखे तो जनता और बाजपेयी जी से इस प्रश्न का उत्तर पूंछना भी मूर्खता होगी अंततः उत्तर की जिम्मेदारी आती है आज के भाजपा के नेताओ से, लेकिन क्या उनके पास किसी तरह का उत्तर हो सकता है ?? अब भी ये एक बड़ा प्रश्न है ??
इस राजनैतिक दल में महान नेताओ की कमी नहीं है, लेकिन किसी महान विचारक के कथन है : “किसी भी अच्छे और बड़े कार्य के लिए सञ्चालन का अच्छा होना अत्यंत आवश्यक है !”
लेकिन क्या गडकरी और अडवाणी जैसे राजनेता भाजपा को सही सञ्चालन दे रहे है ?? जिस व्यक्तित्व के अंदर खुद के बोलने में नियंत्रण न हो , क्या वो किसी दल का नियंत्रण कर सकता है ! स्वामी विवेकानंद जैसे महपुरुष की तुलना आज के आतंकवादी दाउद से करना मूर्खता कहलायेगा या पागलपन ! जिस महापुरुष ने अपना जीवन देश सेवा के न्योछावर कर दिया उसकी बौद्धिक क्षमता की तुलना किसी भी देशद्रोही से करना खुद को देशद्रोही ही दिखाता है, और वो भी ऐसे राजनैतिक दल द्वारा जो आपकी ज्म्मेदारियो के लिए जाना जाता है !
गडकरी की इस मूर्खता या पागलपन से आतंक फ़ैलाने वाले समूहों को सकारात्मक सोच मिलेगी और देश में आतंक का शय बढ़ सकता है ! ऐसे वक्तव्यों के लिए गडकरी को देशद्रोही कहना अनुचित नहीं होगा ! उन्होंने इस कथन को क्यों कहा , क्या वो अभी तक अरविन्द केजरीवाल द्वारा लगाये गए आरोपों से नहीं उबरे या फिर उन्हें खुद के भाजपा संचालक होने का घमंड है?
कारण कुछ भी हो देश को ऐसे वक्तव्य एक गलत छवि देते है , और इस तरह के कारणों को देखते हुए उन्हें अपने सञ्चालन को छोड़कर देश से माफ़ी मांगनी चाहिए, जिस देश में भ्रष्टाचार के लिए आवाज उठाने वाले असीम त्रिवेदी जैसे व्यक्ति को जेल में डाला जा सकता है तो क्या आतंकवादियो की तुलना राष्ट्रपुरुष से करने वाले को खुले आसमान के नीचे घूमने देना खतरा नहीं दे सकता ! देश के अंदर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने की आजादी नहीं है , उसके लिए जेल के दरवाजे तुरात्त खोल दिए जाते है तो क्या आतंकवाद फ़ैलाने के लए आजादी हों चाहिए ! यह प्रश्न जनता के लिए है और जनता को यह तय करना है की आखिर देख को कौन चलाएगा, आतंक को सह देने वाला एक व्यक्ति या कोई और !!
क्या अब भी दलालो की इस नीति को राजनीती कहेगे : अंकुर मिश्र 'युगल
अब जनता आखिर भरोसा किस पर करे और किस पर न करे, उस नेता पर जो चुनाव के समय लम्बे लम्बे वादे करता है ? या उस पर जो विधायक, सांसद य मंत्री बन जाने के बाद उस क्षेत्र में एक भी बार नहीं आता ? या उस नेता पर जो बेदाग क्षवि होने के बावजूद हजारों घोटलो से लदा होता है ? या उस नेता पर जो वंसवाद की राजनीती से घिरा हुआ हुआ है ?
क्या सोचता होगा वो एकल मनुष्य जिसने पना जीवन देश की सेवा में न्योछावर कर दिया, क्या बीतती होगी उस मनुष्य पर जो खुद राजनीती की परिभाषा बन गया , क्या बीतती होगी उस मनुष्य पर जो देश के सर्वोच्च पद पर रहते हुए भी एक रुपये में पूरा कार्यकाल बिता गया, क्या बीतती होगी जिसने इस लोकतंत्र के निर्माण में अपना पूरा जीवन लगा दिया !
अब सबसे बड़ा प्रश्न यही है की क्या इसी घोटालों की श्रंखला को देखने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगाया था !
पक्ष-विपक्ष की राजनीती बनायीं ताकि वो देश की कमियों को दूर किया जा सके लेकिन नतीजा आज दोनों ने मिलकर देश में गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को दूर करने के लिए नहीं बल्कि वोटबैंक के लिए इस्तेमाल करने की ठान रखी है ! वो कहते है इन मुद्दों को खत्म कर दिया तो वोट कैसे मांगेगे !
अभी हल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवाक संघ और नरेन्द्र मोदी के बिच संगोष्ठी हुयी, साभी जनते है नरेंद्र मोदी की कुछ कमियों को छोड़ दिया जाये तो वो एक विकास पुरुष ही कहलायेगे ! और देश को ऐसे ही संच्लक की जरुरत है ! लेकिन इस संगोष्ठी के बाद नतीजा ये आता है की उन्हें देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नही बनाया जा सकता क्योंकि वो प्रधानमत्री बनाए तो चुनाव लड़ने के मुद्दे खत्म हो जायेगा ! हो सकता है देश में गरीबी, बेरोजगारी और भारश्त्चार जैसे मुद्दों की समाप्ति हो जाये !
इस सोच को क्या कहेगे आज की राजीनीति में राष्ट्र की राजनीती या दलालो की राजनीती ??
वास्तविकता यही है शब्द कुछ भद्दे लगेगे लेकिन देश के आज के राजनेता वास्तव में दलालो का काम ही कर रहे है वो भी भारत को बर्बाद करने वाले दलालो का, इनकी आय तो लाखो में होती है लेकिन खुद की जमापूंजी अरबो में होती है ! ऐसा दलाल जो अमनी माँ का भी अपमान करने से नहीं चूकता ! तरीका कोई भी हो इनके स्विस बैंक के खातों में समात्ति जती रहनी चहिये कहा से और कैसे इससे कोई मतलब नहीं है, शुक्र है उस आम डमी का जिसने जुर्रत और मेहनत की इन दलालों के दलाली के छिट्ठे खोलने की, वरना ये हम तो मौन ही थे और उनके आपसी भाईचारे से ये मौन धंधा चल ही रहा था !
इन सब बातों के बाद भी प्रश्न भी भी यही है हम वोट दे तो किन्हें दे ????
'मंदिर' नहीं व्यापार का केंद्र कहो उसे : अंकुर मिश्र ‘युगल’
ग्रामीण विकास मंत्री ‘जयराम रमेश’ के द्वरा कहे गए शब्दों में कोई राजनीती नहीं थी, देश को मंदिर नहीं शौचालयों की जरुरत ज्यादा है ! मंदिर एक आस्था का केंद्र मन जाता है और आस्था दिल से होते है दिखावे से नहीं, देश के मदिर आज खुले व्यपार के अड्डे बाण चुके है! इस तथ्य से कोई भी अनभिग्यनहीं है लेकिन क्या करे वो उस अन्धविश्वास का सीकर है जिसने उसे इस व्यापर का भागीदार बनाने के लिए विवास कर रखा है ! वो ग्रन्थ पढता है लेकिन डर से प्रेम से नहीं, मंदिर जाता है प्यार के लिए व्यापर के लिए ! इश्वर से भी व्यापर के रिश्ते है जनता के आज कल :
वो कहेगा आप मेरा ये कम कर दो तो मई ये करूँगा !!.......... ###
और इसी व्यापारिक केंद्र को बनाने के लिए हमारी सरकार, हमारे उद्योगपति करोणों की संपत्ति खर्च करते है वो भी किसी आस्था के लिए अपने लाभ के लिए, कोई सोचता है मंदिर बनवाओ चुनाव आने पर ‘वोट’ के लिए इस्तेमाल करेंगे ! कोई सोचता है मंदिर बनवाओ कर में कुछ छूट मिल जायेगी ! कोई सोचता है मंदिर बनवाओ मेरा ये कम हो जायेगा ! लेकिन किसी ने इसे धार्मिक स्थल बनवाने की नहीं सोची ! यह है हमारा देश ‘धर्म’ गुरु ..??
यहाँ आज किसी को वो दिन भी याद नहीं होगा जब स्वामी विवेकानन्द ने गीता का मतलब पुरे विश्व को बताया था, हम आधार है सभी धर्मो का लेकिन आज तो हम ही निराधार है, खुद के धर्म को व्यापर बना दिया है !
बात उस बात की जिसकी जरुरत देश को सबसे ज्यादा है, हम प्रदुषण के मामले में दिन दिन उन्नति कर रहे है, कोई गौरव के बात नही है....... ! प्रमुख आधार क्या है इस प्रदुषण का देश की जनता का मलमूत्र, खुले आसमान के नीचे शौच क्रियाएँ , खुले आसमान के नीचे कूड़ा करकट ......!
लेकिन देश की सरकार के पास, देश की जनता के पास, उद्योगपतियों के पास इसके लिए पैसे नहीं है ! जनता को खुले में जाकर प्रदुषण उर गन्दगी फैलाना मंजूर है ! सरकार को इस गन्दगी को समाप्त करने के लिए वादे करना मंजूर है, उद्योगपतियों को अपने कारखाने लगाकर प्रदुषण फैलाना मंजूर है लेकिन हजारों में बनने वाले “शौचालय” बनवाना मंजूर नहीं है ! वाही अंधविश्वास की बात आयेगी , कही से एक पत्थर निकल आये करोडो का मंदिर बन जायेगा ! करोडो की सुरक्षा लगा दी जायेगी, करोडो रुपये पंडितो और पुजारियों में खर्चा कर दिए जायेगे लेकिन इस हजारों की चीज के लिए कोषागार में , घर में पैसा नहीं है ! यदि ये ढूंढे की जिम्मेदार कौन है तो दोषारोपण की कहानियाँ तैयार हो जायेगी सरकार जनता पर और जनता सरकार पर दोष की किताब लिख देगी, चुनाव आने पर ये बाते ण जनता को यद् रहेगी और न ही सरकार को ! और प्रदुषण की यह क्रिया दोबारा से शुरू हो जायेगी ! शिकार प्रकृति होगी जिसने सबकुछ दिया ! आब भी समय है आस्था को ज़िंदा रखकर, पहले आवश्य चीजों पर धयान दो !
इश्वर भी कर्म को प्रथम बताते है ! कर्म ! कर्म ! कर्म !
‘हो सकता है’ इस विकल्प के पास कोई ‘विकल्प’ हो : अंकुर मिश्र ‘युगल’
‘विकास’ का शब्द वैसे तो भारत के लिए प्रयोग करना जायज नहीं है, कारण साधारण है ‘विकास’ न होना ! अंग्रेजो से आजादी के देश को ६५ साल हो चुके है लेकिन देश की आजाद कहना देश के लिए नाजायज होगा ! भ्रम की राजनीति, विकास की खोखली राणनीति और देश का देशीय भ्रष्टाचार है जो देश के पतन में पूरी जिम्मेदारी से साथ निभा रहे है ! लोकतंत्र का एक दरवाजा है जो देश सञ्चालन के लिए हमारे पूर्वजो ने बनाया था इसे देश सञ्चालन की राजनैतिक किताब भी कह सकते है लेकिन इस किताब के नियमों को जिस तरह से राजनैतिक डालो और राजनेताओ ने तोडा है उसे कोई साधारण शैतान नहीं कर सकता ! चुनाव जो हमें हमारा विकासकर्ता चुनने की छूट देता है उसे इन राजनेताओं ने राजकर्म बना रखा है, राजकोष का पैसा पहले इन वोटो के लिये चुनाव प्रचार में लगाया जाता है फिर जनता से लूटा जाता है और इसके बाद इअसे देश में न रखकर स्विस-बैंक जैसे कोषागार में जमा कर दिया जता है, और फिर बात होते है की देश के विकास के लिए पैसा नहीं है ! आखिर पैसा होगा क्यों जब उस चक्र का पालन ही नहीं हुआ जिसमे देश का विकास भी अंग था !
चक्र में देश है, जनता है, चुनाव है, वोट है, संसद है और अनेक तथ्य है लेकिन उसमे ऐसे तथ्य नहीं है जिनकी देह को जरुरत है, उन तत्वो की जगह देश के देशीय भ्रष्टाचार, क्षेत्रीय क्षेत्रवाद, आरक्षणवाद ने ले रखी है, समय ऐसे है की देश में इस राजनीति से हटकर देश को विकास की राजनीती देने वाले लोकतंत्र की जरुरत है !
जरुरत पड़े तो इस विकास जैसे शब्द को देश सञ्चालन के चक्र में लेन के लिए उस लोकतान्त्रिक किताब में भी परिवर्तन होने चाहिए जिसे आज के राजनेताओ ने अपने विकास की किताब बना रखी है ! कहने को तो देश अनेक क्षेत्रो में विकास कर रहा है लेकिन उस विकास के फेरे में वो देश के उस आतंरिक भाग को भूल चूका है जिससे देश का भविष्य केवल गर्त में ही हो सकता है !
देश को फिर से उसी लड़ाई की जरुरत है जो १९४७ के पहले हुयी थी, वैसे ही राजनेताओ की जरुरत है, वैसे ही कर्म की जरुरत है और अब ऐसे परिवर्तन की जरुरत है की मात्र ६५ सालो में सिस्टम इतना गर्त में न जाये ! अंग्रेजो ने तो ३०० साल से ज्यादा राज किया था लेकिन उन्होंने देश को इतना खोखला नहीं बनाया था जितना देश पिछले ६५ सालो में हुआ है वो भी इकलौते कारण की वजह से ‘राजनीती’ !!
क्या लोकतान्त्रिक देश ऐसे ही होते है ??? यह देश के लिए एक बड़ा प्रश्न है !
ऐसा भी नहीं है की लोकतंत्र के तहत कुछ विकास का उदहारण न हो , देश के अंदर ही ‘गुजरात, पशिम-बंगाल और बिहार’ जैसे राज्य है जो देश के खुद आदर्श है लेकिन दिल्ली में तिरंगा फहराने वाला देश को देश के लिए आदर्श नही बना पाता ! कारण जानते हुए भी जनता चुप रहती है आखिर विकल्प क्या होगा जनता के पास !
आजादी के बाद ‘कांग्रेस’ का एकछत्र राज्य चल रहा है, कुछ समय तक भाजपा ने शासन किया लेकिन विकास अभी तक ‘कास्स्स्स्स’ में ही झूल रहा है !
जनता को इस ‘कास्स्स्स्स’ के विकल्प की जरुरत है !
अभी हाल ही में समाजसेवी से राजनीती में कदम रखने वाले अरविन्द केजरीवाल का राजनैतिक दल क्या इस समस्या का विकल्प बन सकता है ये तो जनता की सोच ही बता सकती है लेकिन इस विकल्प में कुछ अल्गाव्पन तो होगा जो उन राजनैतिक दलों में नहीं है !
हो सकता है ये राजनैतिक दल राजनेताओ की प्रमुख कमी : “शैक्षिक” निर्धारण और “आयु” सीमा को ध्यान में रखकर चुनाव मैदान में उतारे ! जब नेता युवा और शिक्षित होगा तो हो सकता है उसके कुछ विकासशील मुद्दे हो जो देश विकास में सहायक हो ! उनके अनुसार वो क्षेत्रवाद, जातिवाद, आरक्षणवाद की राजनीती से वो दूर रहेगे हो सकता है वो इस पर अमल करे ! हो सकता है केन्द्रीय राजनीती का यह विकल्प देश के विकास का विकल्प बने !
लेकिन इन सारे ‘हो सकता है’ के जबाब देश की जनता से ही मिलेगे ! आगामी कुछ प्रदेशीयचुनावो में पता चलेगा की यह विकल्प देश के लिए केन्द्रीय विकल्प हो सकता है या नहीं !
इसका इंतजार “देश को, आम जनता को , और इस तीसरे दल को” करना होगा !
‘हो सकता है’ इस विकल्प के पास देश के विकास का कोई विकल्प हो, इंतजार है !!
यदि घर में रहकर घर के लिए बात करना जुर्म है तो मुझे भी जेल चहिये : अंकुर मिश्र “युगल”
एक हमारे देश के मेहमान है जिन्हें सलाखों के पीछे रखकर सारी सुविधाए उपलब्ध कराई जा रही है ! दूसरी तरफ असीम त्रिवेदी है जिन्हें अपने ही देश के अंदर देशद्रोह के आरोप में पकड़कर कांड किया जाता है ! देश ओ आजादी के ६५ वर्ष पुरे होने चले है , देश में कहने के लिए लोकतंत्र भी है यहाँ वोट देने की आजादी है अपने मन का नेता चनने की आजादी है लेकिन यदि वह नेता पंचवर्षीय के अंदर तानासहियत पर उतारकर देश विनाश में लग जाये तो उसके खिलाफ बोलने की आजादी नही है ! देश लोकतन्त के तहत चलता है, ऐसा लोकतंत्र जो आज के नेताओ ने पूरी तरह खोखला कर दिया है उनके खिलाफ बोलने की आजादी इस लोकतंत्र में नहीं है !!
लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमी, देश को भालिभाती कौन चला सकता है एक पढ़ा लिखा जवान नेता न ??
लेकिन भारत के लोकतंत्र का सबसे बड़ा खोखलापन ये है की राजनीती के पदार्पान की निम्नतम सीमा तो निश्चित है लेकिन अधिकतम सीमा की कोई चिंता नहीं है, जब पदार्पण ही ५० के बाद होगा तो देश को क्या खाक ‘जवान’ रखेगे !! वाही दूसरी ओर देश की उच्चतम शिक्षा के नियमों में फेरावदल करने वाले वाले, देश के लिए निर्णय लेने वालो की निम्तम शिक्षा निश्चित नहीं है, अत्याचारियो की फ़ौज देश के राजनीती करती है ! इन सबका होना भारत का दुर्भाग्य ही है !
लोकतंत्र के मंदिर को बचने के लिए अनेक सैनिको ने जन दी लेकिन वो षड्यंत्रकर्ता अभी भी हमारा मेहमान है , मुंबई में हाजरो निर्दोष मरे गए लेकिन कसाब का अभी तक कोई हिसाब नहीं हुआ, लोकतंत्र के पुजारी कहते है: मुस्लमान भाई नाराज हो जायेगे, लेकिन आज तक किसी मुस्लमान ने आवाज नहीं उठाई की कसाब और अफजल गुरु को फांसी न हो ! पहले मंदिर मस्जिद पर लड़वाते थे ! अब इन्हें बंद कर रखा है चुनाव के “रोमाच” के लिए !
क्या गलत किया असीम त्रिवेदी ने देश की छवि यही है वास्तविकता यही है !
लोकतंत्र के खिलाडियों संभल जाओ देश हमारा है वेरना देश में एक ऐसी महाक्रांति आयेगी की अपनी पीढियों को भी जबाब नहीं दे पाओगे :
न तेरा है
न मेरा है
ये हिंदुस्तान सबका है
नहीं समझी गयी ये बात तो नुकसान सबका है !
यहाँ तो मै भी कहूँगा यदि देश के लिए देश में रहकर बात करना ‘लोकतंत्र’ का जुर्म है तो मुझे भी जेल में बंद करो !
यहाँ तो मै भी कहूँगा यदि देश के लिए देश में रहकर बात करना ‘लोकतंत्र’ का जुर्म है तो मुझे भी जेल में बंद करो !
जीविका ‘स्वप्नान्कुरण’ का एक हिस्सा है : अंकुर मिश्र’युगल’
लोग कहते है सपने नहीं देखनें चाहिए, सपने कभी साकार नहीं होते लेकिन क्या ऐसी वास्तविकता से वो खुद जागरूप होते है?
आज की दुनिया में स्वप्न ही ऐसा माध्यम है जिसके जरिये लोग संघर्ष करते है और उनका उसे सच करने का एक और स्वप्न रहता है ! जिस तरह से किसी निकाय या व्यावसायिक निकाय द्वारा एक उद्देश्य दिया जाता है उसी तरह जीवन को उद्देश्य देने का कार्य ‘सपनों’ का होता है, जिसका ‘अंकुरण‘ जीविका से होता है ! मनुष्य का पहला स्वप्न उसका जीविकापार्जन होता है उसके बाद स्वप्नों की सीमाए बढ़नी लगती है वो भी ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक निकाय या व्यावसायिक निकाय के उद्देश्यों की सीमाए बढ़ने लगती है ! और इन स्वप्नों की पूर्ति के लिए मनुष्य पर्याप्त संघर्ष भी करता है !
वस्तुतः सोचा जाये तो ‘स्वप्न’ ही ऐसा माध्यम है जिसके जरिये मनुष्य अपने वास्तविक कर्मो से बंधा हुआ है और उसे मानवता का एहसास होता रहता है ! और इन सबके बावजूद लोग कहते है सपने नहीं देखने चाहिये ....!!
कुछ मनुष्य ऐसे होते है जो सपनो के होने के बावजूद उचित कर्म नहीं करते और हमेशा रोते रहते है की ‘मेरा कुछ नहीं हो सकता है’?? जबकी उनमे कोई कमी नहीं होती कमी होती है उनके कार्य करने के तरीको में यदि वो सभी अपने कार्य करने के तरीको में ध्यान दे उन्हें उनकी कमी उन्हें जरुर दिखेगी लेकिन वो ऐसा न करके शांत बैठ जाते है और अपने सपनो को दबा देते है !
सपनो को दबाना मानव प्रजाति की सबसे बुरी कमी है! प्रयोग के तौर से देखे: सपनो की उत्पत्ति मानव के अनुसार उसके मस्तिष्क से होती है और यही उनका निवास रहता है, लेकिन कुछ कारणों के कारण लोग अपने सपनो को भूल जाते है और जीवन के किसी अन्य कार्य में व्यस्त हो जाते है, (हो सकता है वह भी किसी स्वप्न का एक हिस्सा हो!) लेकिन ऐसे में उनका एक स्वप्न इन्तजार की अवस्था में चला जाता है और धीमे- धीमे करके उसका ‘देहावसान’ हो जाता है ! यहाँ सोचने वाली बात यह है की जिस तथ्य का अंत शरीर के अंदर हुआ है वह रहेगा तो शारीर के अंदर ही !! और इसी तरह के तथ्य जीवन का हाजमा खराब करते है !
अतः जीवन के किसी भी ऊँचे या नीचे स्वप्न को कभी दबाएँ नहीं बस उस स्वप्न की परिपूर्ति के लिए आत्मविश्वास से संघर्ष करे, सपने अवश्य साकार होंगे !
एक और अनशन समाप्त लेकिन देश अभी भी ‘अधर’ में : अंकुर मिश्र ‘युगल”
एक और अनशन खत्म, क्या होता है इसका परिणाम इस रिचक तथ्य के लिए सभी लालायित होगे !
पिछले साल भ्रष्टाचार के लिए जिस लड़ाई की सरुआत कुछ चंद लोगो ने मिलकर की उसका वर्त्मनिक राजनीतिकरण आखिर देश की राजनीती में कितना असर डाल पता है द्रश्नीय होगा पता है लेकिन जनता जिस समाज जागती है उसी समय अनशन की समाप्ति का औचित्य कुछ समझ में नहीं आता, पहले कहा जाता है की “जब तक कुछ समधान नहीं निकलेगा, तब तक अनिश्चित कालीन अनशन रहेगा” लेकिन बिना समाधान के अनशन की समाप्ति का कुछ औचित्य नहीं बनता !
अन्ना हजारे द्वारा किये गए पिछले अनशन का कुछ परिणाम सामने भी आया लेकिन मात्र दिखावे के लिए, वास्तविक परिणाम अब तक नहीं है ! जनता कारणों को समझकर जिन व्य्क्तितो को आदर्श और जिन समस्याओ को आधार बनकर अनशन या क्रांति का हिस्सा बनती है अंततः या तो वो व्यक्ति जनता का साथ छोड देता है या जनता ही समस्या को नहीं समझती ! पूर्ववत अभी २०१२ में २ अनशन किये गए एक “अन्ना हजारे” द्वारा और दूसरा “बाबा रामदेव” के द्वरा लेकिन परिणाम क्या थे ? वास्तविकता में शून्य, और यहाँ दोशारोपड आया जनता पर ! लेकिन क्या इस अनशन या क्रांति का संचालन कर रहे महामहिमो ने जनता के बारे में सोचा ??
वास्तविकता में इस क्रांति का प्रमुख कारण संच्लक ही थे !!
राजनैतिक-कारण के लिए जनता से पूंछते है लेकिन क्या अनशन और क्रांति के समय के बारे में कभी जनता की राह ली गयी या खुद के समयानुसार देश सुधर के विगुल के साथ अनशन के लिए बैठ गए ! देश किसी व्यक्ति विशेष या समूह विशेष के लिए नहीं लड़ रहा देश की लड़ाई थी “भ्रष्टाचार” के खिलाफ, और जनता को ये पता है की भ्रष्टाचारी सभी राजनातिक दलों में है अतः किसी व्यक्ति या समूह विशेष को इन्कित करके लड़ाई का लड़ना जनता और क्रांति संचालको की प्रमुख गलती थी ! इन कारणों के आलावा प्रमुख कारण खुद के नियमों को मंच के माध्यम से प्रदर्शित करना भी इस इस लड़ाई की असफलता का सबसे बड़ा कारण है प्रमुख रुप से अनशन का आकस्मिक तुडाव ! जनता जिस समय किसी मुद्दे की गहनता तक जाती है तभी अचानक खबर आती है, “अनशन की समाप्ति”..
जनता भी जान चुकी है देश की इस महासमस्या का हल एक महाक्रांति ही हो सकती है, और वास्तविकता भी यही है देश को आज ऐसी क्रांति की जरुरत है जो बलिदान मांगती है लोकतंत्र के अंदर घुसकर उसे सही करना आज, कोई बुध्धिमत्ता नहीं होगी !
देश के लिए पहले क्रांति के जारिये एक सभ्य लोकतंत्र की जरूरत है फिर उस लोकतंत्र को सभ्यता से चलाने के लिए सभ्य व्यक्तियों की जरुरत है ! अतः किसी अनशन या क्रांति का राजनीतिकारण या फिर अनशन का आकस्मिक समापन देश की जनता के विचारों से परे है आखिर इसी क्या कहे ???
अंकुर मिश्र “युगल” : मै खुद अगस्त २०११ के अनशन में अन्ना टीम के साथ २ दिन तक जेल में था, मुझे उस समय की क्रांति से लगा की देश में कुछ हो सकता है लेकिन आज जिस तरह से अनशनो का राजनीतिकरण और आकस्मिक समापन हुआ, मुझे लगा इस देश को अब बलिदानी महाक्रांति के आलावा कुछ नहीं बचा सकता !!
अंकुर मिश्र “युगल” : मै खुद अगस्त २०११ के अनशन में अन्ना टीम के साथ २ दिन तक जेल में था, मुझे उस समय की क्रांति से लगा की देश में कुछ हो सकता है लेकिन आज जिस तरह से अनशनो का राजनीतिकरण और आकस्मिक समापन हुआ, मुझे लगा इस देश को अब बलिदानी महाक्रांति के आलावा कुछ नहीं बचा सकता !!
"आत्मा"
‘आत्मा’ एक प्रश्न जो हमेशा मस्तिस्क में एक संदिग्ध अवस्था में रहता है !
आखिर क्या है ये आत्मा, इसकी वास्तविकता क्या है ?
किसी भी तथ्य पर कैसे भरोषा कैसे किया जाये इसका भी कोई वास्तविक प्रमाण नहीं है ! अध्यात्म की सुने या वैज्ञानिको की हमेशा संदेह की अवस्था रहती है !
“अन्यों अंतर आत्मा विग्यानमया” उपनिषदों में “आत्मा” के सन्दर्भ में कहा गया है ! लेकिन वास्तविकता यही है की जिस तरह किसी भी निर्जीव वास्तु से कार्य करवाने के लिए एक उर्जा की जरुरत होती है ठीक वैसे ही शरीर को कार्य के लिए उर्जा का निर्गमन में आत्मा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, और मानव शारीर में ‘दिमाग’ और ‘आत्मा’ ही ऐसे तो जीवित तथ्य है जिनकी सहायता से मानव शरीर चलता है !
जैसे किसी तत्व के लिए इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान आवश्यक होते है ठीक उसी प्रकार किसी शरीर की सबसे आवश्यक तथ्य ‘आत्मा’ ही है ! आध्यात्म में कहा गया है ‘आत्मा’ अजर अमर है ! लेकिन इसका रूपांतरण होता रहता है ! जिस तरह कोई व्यक्ति शारीर पुराने वश्त्र छोडकर नए वश्त्र धारण करता है उसी तरह एक आत्मा अपना स्थानांतरण एक शारीर से दूसरे शारीर में करती है !
असीम उर्जा के भंधारण, आत्मा की परिभाषा अतुलनीय है !
शरीर की चुनिन्दा चीज जिसके बिना शारीर का की अस्तित्व नहीं है ! शारीर जो की पञ्च तत्वों का आकर्षित ढांचा है अंततः इन्ही में बिलिन हो जाता है लेकिन आत्मा का केवल स्थानांतरण ही होता है !
आखिर क्या है ये आत्मा, इसकी वास्तविकता क्या है ?
किसी भी तथ्य पर कैसे भरोषा कैसे किया जाये इसका भी कोई वास्तविक प्रमाण नहीं है ! अध्यात्म की सुने या वैज्ञानिको की हमेशा संदेह की अवस्था रहती है !
“अन्यों अंतर आत्मा विग्यानमया” उपनिषदों में “आत्मा” के सन्दर्भ में कहा गया है ! लेकिन वास्तविकता यही है की जिस तरह किसी भी निर्जीव वास्तु से कार्य करवाने के लिए एक उर्जा की जरुरत होती है ठीक वैसे ही शरीर को कार्य के लिए उर्जा का निर्गमन में आत्मा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, और मानव शारीर में ‘दिमाग’ और ‘आत्मा’ ही ऐसे तो जीवित तथ्य है जिनकी सहायता से मानव शरीर चलता है !
जैसे किसी तत्व के लिए इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान आवश्यक होते है ठीक उसी प्रकार किसी शरीर की सबसे आवश्यक तथ्य ‘आत्मा’ ही है ! आध्यात्म में कहा गया है ‘आत्मा’ अजर अमर है ! लेकिन इसका रूपांतरण होता रहता है ! जिस तरह कोई व्यक्ति शारीर पुराने वश्त्र छोडकर नए वश्त्र धारण करता है उसी तरह एक आत्मा अपना स्थानांतरण एक शारीर से दूसरे शारीर में करती है !
असीम उर्जा के भंधारण, आत्मा की परिभाषा अतुलनीय है !
शरीर की चुनिन्दा चीज जिसके बिना शारीर का की अस्तित्व नहीं है ! शारीर जो की पञ्च तत्वों का आकर्षित ढांचा है अंततः इन्ही में बिलिन हो जाता है लेकिन आत्मा का केवल स्थानांतरण ही होता है !
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