‘हो सकता है’ इस विकल्प के पास कोई ‘विकल्प’ हो : अंकुर मिश्र ‘युगल’

‘विकास’ का शब्द वैसे तो भारत के लिए प्रयोग करना जायज नहीं है, कारण साधारण है ‘विकास’ न होना ! अंग्रेजो से आजादी के देश को ६५ साल हो चुके है लेकिन देश की आजाद कहना देश के लिए नाजायज होगा ! भ्रम की राजनीति, विकास की खोखली राणनीति और देश का देशीय भ्रष्टाचार है जो देश के पतन में पूरी जिम्मेदारी से साथ निभा रहे है ! लोकतंत्र का एक दरवाजा है जो देश सञ्चालन के लिए हमारे पूर्वजो ने बनाया था इसे देश सञ्चालन की राजनैतिक किताब भी कह सकते है लेकिन इस किताब के नियमों को जिस तरह से राजनैतिक डालो और राजनेताओ ने तोडा है उसे कोई साधारण शैतान नहीं कर सकता ! चुनाव जो हमें हमारा विकासकर्ता चुनने की छूट देता है उसे इन राजनेताओं ने राजकर्म बना रखा है, राजकोष का पैसा पहले इन वोटो के लिये चुनाव प्रचार में लगाया जाता है फिर जनता से लूटा जाता है और इसके बाद इअसे देश में न रखकर स्विस-बैंक जैसे कोषागार में जमा कर दिया जता है, और फिर बात होते है की देश के विकास के लिए पैसा नहीं है ! आखिर पैसा होगा क्यों जब उस चक्र का पालन ही नहीं हुआ जिसमे देश का विकास भी अंग था ! चक्र में देश है, जनता है, चुनाव है, वोट है, संसद है और अनेक तथ्य है लेकिन उसमे ऐसे तथ्य नहीं है जिनकी देह को जरुरत है, उन तत्वो की जगह देश के देशीय भ्रष्टाचार, क्षेत्रीय क्षेत्रवाद, आरक्षणवाद ने ले रखी है, समय ऐसे है की देश में इस राजनीति से हटकर देश को विकास की राजनीती देने वाले लोकतंत्र की जरुरत है ! जरुरत पड़े तो इस विकास जैसे शब्द को देश सञ्चालन के चक्र में लेन के लिए उस लोकतान्त्रिक किताब में भी परिवर्तन होने चाहिए जिसे आज के राजनेताओ ने अपने विकास की किताब बना रखी है ! कहने को तो देश अनेक क्षेत्रो में विकास कर रहा है लेकिन उस विकास के फेरे में वो देश के उस आतंरिक भाग को भूल चूका है जिससे देश का भविष्य केवल गर्त में ही हो सकता है ! देश को फिर से उसी लड़ाई की जरुरत है जो १९४७ के पहले हुयी थी, वैसे ही राजनेताओ की जरुरत है, वैसे ही कर्म की जरुरत है और अब ऐसे परिवर्तन की जरुरत है की मात्र ६५ सालो में सिस्टम इतना गर्त में न जाये ! अंग्रेजो ने तो ३०० साल से ज्यादा राज किया था लेकिन उन्होंने देश को इतना खोखला नहीं बनाया था जितना देश पिछले ६५ सालो में हुआ है वो भी इकलौते कारण की वजह से ‘राजनीती’ !! क्या लोकतान्त्रिक देश ऐसे ही होते है ??? यह देश के लिए एक बड़ा प्रश्न है ! ऐसा भी नहीं है की लोकतंत्र के तहत कुछ विकास का उदहारण न हो , देश के अंदर ही ‘गुजरात, पशिम-बंगाल और बिहार’ जैसे राज्य है जो देश के खुद आदर्श है लेकिन दिल्ली में तिरंगा फहराने वाला देश को देश के लिए आदर्श नही बना पाता ! कारण जानते हुए भी जनता चुप रहती है आखिर विकल्प क्या होगा जनता के पास ! आजादी के बाद ‘कांग्रेस’ का एकछत्र राज्य चल रहा है, कुछ समय तक भाजपा ने शासन किया लेकिन विकास अभी तक ‘कास्स्स्स्स’ में ही झूल रहा है ! जनता को इस ‘कास्स्स्स्स’ के विकल्प की जरुरत है ! अभी हाल ही में समाजसेवी से राजनीती में कदम रखने वाले अरविन्द केजरीवाल का राजनैतिक दल क्या इस समस्या का विकल्प बन सकता है ये तो जनता की सोच ही बता सकती है लेकिन इस विकल्प में कुछ अल्गाव्पन तो होगा जो उन राजनैतिक दलों में नहीं है ! हो सकता है ये राजनैतिक दल राजनेताओ की प्रमुख कमी : “शैक्षिक” निर्धारण और “आयु” सीमा को ध्यान में रखकर चुनाव मैदान में उतारे ! जब नेता युवा और शिक्षित होगा तो हो सकता है उसके कुछ विकासशील मुद्दे हो जो देश विकास में सहायक हो ! उनके अनुसार वो क्षेत्रवाद, जातिवाद, आरक्षणवाद की राजनीती से वो दूर रहेगे हो सकता है वो इस पर अमल करे ! हो सकता है केन्द्रीय राजनीती का यह विकल्प देश के विकास का विकल्प बने ! लेकिन इन सारे ‘हो सकता है’ के जबाब देश की जनता से ही मिलेगे ! आगामी कुछ प्रदेशीयचुनावो में पता चलेगा की यह विकल्प देश के लिए केन्द्रीय विकल्प हो सकता है या नहीं ! इसका इंतजार “देश को, आम जनता को , और इस तीसरे दल को” करना होगा ! ‘हो सकता है’ इस विकल्प के पास देश के विकास का कोई विकल्प हो, इंतजार है !!

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