अब मेरा कानपुर कैसा होगा ?

कानपूर से अलग हुए काफी दिन हो गए, एक मित्र को फोन मिलाया... वैसे मै कानपूर से १०० किलोमीटर दूर रहता हूँ... मगर कुछ अपनापन सा हमेशा लगता है कानपूर से.. स्कूल के बाद का एक साल वाही गुजारा है ! मित्रता और मित्र कानपुर को यूपी का कलकत्ता मानते हैं। उसने कहा, अब मेरा कानपुर कैसा होगा, मुझे पता नहीं। एकदम से मेरा दिमाग रुक गया, जैसे कोई शहर ठहर जाता है। यह एक ऐतिहासिक शहर की औपनिवेशिक व्याख्या है। हमारे मन में कलकत्ता का मतलब कहीं ठहर गया शहर है। हमारे अंदर का यह कलकत्ता, वह कलकत्ता कभी नहीं होता, अगर ब्योमकेश बख्शी को हमने पढ़ा नहीं होता ।... हमें तलाश है किसी कानपुरिए जासूस की, जिससे हम प्यार कर सकें और उसकी नजर से फिर शहर देख सकें। 

कानपुर कैसा होगा? 
एक कानपुर देहात है, एक कानपुर शहर। 
अपनी भी दो दिल्ली है- एक नई, एक पुरानी। 



भोपाल व लखनऊ भी एक साथ नए और पुराने शहरों को अपने अंदर लिए खुद को लगातार बदल रहे हैं। इनके बीच कोई कर्क रेखा नहीं होती। वह तो हमारे मनों में होती है, जो इनको बांटती है। वे तो बराबर एक-दूसरे में आवाजाही करते रहते हैं। पर जब हम बड़ी-बड़ी श्रेणियां बनाकर किसी जीवंत शहर का वर्गीकरण करते हैं, तब समस्याग्रस्त हो जाते हैं। हम बारीक परतों को अनदेखा कर देते हैं, जिनके बीच अतीत व वर्तमान अदृश्य रहकर भविष्य को निर्मित करने में लगे रहते हैं। वह तब शहर नहीं रहता, ‘TEXT’ बन जाता है। एक पाठ, जिसे कोई किताब की तरह पढ़ने की जिद लिए रहता है। वैसे कभी-कभी लगता है कि ऐसे सवाल हम जैसे एक-दो दिन शहर के ऊपर से उड़ने वाले कबूतर ही पूछते हैं, वहां रहने वालों को इनसे कोई फर्क नहीं पड़ता। 

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