एक कहावत है ‘कर्म करो फल
की इच्छा मत करो’, मगर कुछ लोग पहले फल सोचकर कर्म करना शुरू करते है और किसी भी
तरह शाम-दाम-दंड का प्रयोग करके उस फल को प्राप्त करने की कोशिश करते है !
किस्सा हल ही के दिल्ली
विधान सभ चुनाव का है वैसे पीछले चुनाव में तो तीन बड़े राजनैतिक दल मैदान थे मगर
इस बार बस नाम के लिए तीन थे मैदान में बस दो ही थे भाजपा और आप, तीसरा दल
कांग्रेस पहले ही हार मन चूका था बस अस्तित्व के लिए चुनाव लड़ना पड़ा है उन्हें !
चुनाव और चुनाव प्रचार में कई रंग दिखे कभी ‘इमाम’ के नाम से राजनीती हुयी तो कभी ‘आवाम’
के नाम पर ! कभी चंदे के लिए राजनीती हुयी तो कभी तेरी पार्टी का धन ज्यादा काला
है मेरी पार्टी का कम ! कभी दूसरे दलों के सदस्यों को ‘भेदा’ गया तो कभी खुद के
दलों के ! कभी किसी को सप्ता के लिए राजनीती में लाया गया तो कभी किसी को सप्ता की
वजह से निकाला गया ! आरोप और प्रत्यारोप का खेल तो पहले का ही है मगर इस बार नाबालिक
लड़को और और खांसी जुखाम तक पहुच गया ! अजीब सा खेल, खेल रही थी पिछले कुछ महीनो से
जिसका आनंद टीवी मीडिया से लेकर अख़बार ने, जनता से लेकर पत्रकार और बच्चों से लेकर
कलाकार सबने लिए ! सबने अपनी अपनी रोटियां पका हुआ तवा देखाकत खूब सेंकी !
परिणाम चाहे जो भी आए,
लेकिन इस चुनाव के दौरान मैंने साफ तौर पर महसूस
किया की एक व्यक्ति सबसे ज्यादा परेशां था, पता नहीं उसे यहाँ भारत का प्रधानमंत्री
कहूँ या भाजपा का प्रचारक... नरेंद्र मोदी !!
पूरे चुनाव प्रचार के
दौरान भाजपा भ्रमित रही कभी बेदी को भेदकर दिल्ली का चक्रव्यूह भेदना चाहा तो कभी
हर्षवर्धन, जगदीश मुखी, विजय गोयल के साथ क्रीड़ा करती रही ! मगर इस बार जातिवाद और
क्षेत्रवाद का खेल थोडा फीका रहा ! दिल्ली में 40 फीसदी मतदाता बिहार और उत्तर प्रदेश
के प्रवासी हैं। इनमें से ज्यादातर दलित एवं पिछड़ी जातियों के हैं,
जो स्वरोजगार में लगे हैं। इस बात को भाजपा नेता
भी स्वीकार करते हैं कि इस वर्ग के ज्यादातर लोग आप और अरविंद केजरीवाल के साथ हैं
! मगर लोकसभा चुनाव में यही वर्ग था जिसके कारण मोदी जी केंद्र तक पहुच सके थे !
चुनाव से संबधित सभी प्रचार प्रसार में मोदी जी लोहिया के समाजवाद का स्मरण करने
लगे थे मगर उनके लिए किये गए वादों को कभी पूरा नहीं किया जिससे ये पूरा वर्ग इनसे
खफा हो चूका था !
मै यहाँ बताना चाहूँगा
मोदी जी की ये चिंता बस दिल्ली के लिए नहीं है अगर दृश्य यही रहा तो दिसंबर में
होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में उतरने से पहले गंभीर आत्मनिरीक्षण करना होगा,
और यही उत्तर प्रदेश के लिए करना होगा वर्ना हर-हर मोदी हर-हर हार में तब्दील हो
सकती है !
मेरा ऐसा मानना है कि मोदी
जी लोकसभा चुनाव में मिले बहुमत से उपजे अपनी सरकार के बढ़ते अहंकार का उसी तरह शिकार
हो सकते हैं, जिस तरह राजीव गांधी
1985-86 में हुए थे। इस अहंकार का एक बड़ा कारण है कि सरकार ने अपने निष्ठावानों की
तुलना में अन्य लोगों की बात सुननी बंद कर दी है। इतिहास हमें बताता है कि सियासत का
यह पुराना रोग है, लेकिन जहां तक राजग
सरकार की बात है, तो इसे यह रोग जल्दी
हो गया है।
१० फरवरी को आने वाला
दिल्ली राज्य के चुनावो का परिणाम अगर अनुमान के मुताबिक हुआ तो भाजपा प्रचारक (देश
के प्रधानमंत्री) मोदी जी के लिए पहली चेतावनी
साबित हो सकते हैं कि वह हाल के विधानसभा चुनावों में मिली भाजपा की जीत के बाद अपने
छवि प्रबंधकों द्वारा निर्मित 'बढ़ती लोकप्रियता की धारणा' से अतिशीघ्र बाहर आ जाएं। मोदी जी भारतीय राजनीति में चीजें तेजी से बदलती हैं,
जनता है सब जानती है । थोडा आलसी है राजनीती से दीओर भागना चाहती है, मगर एक बार
उंगली कर दी तो शेर बन जाती है अपना हक़, हक़ से छीनती है ! मोदी जी किरण बेदी भाजपा
के ब्रम्हास्त्र नहीं बल्कि भाजपा भेदी साबित हुयी ! अपनी आत्ममुग्धता से बाहर निकलो
! अपने और अपनी सरकार के कामकाज का तटस्थतापूर्वक आकलन करो आपको देश चलाना है
भाजपा नहीं !
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