आंगन के कोने में
पड़ी “खामोश” कुर्सी...
एक शख्स हर शाम
थक हार कर यहाँ बैठ
जाता था
मिट्टी से सने पांवो
को धोकर
अपनी धोती को सवारकर
सुपाड़ी कत्था और पान
बड़े चाँव से खता था
इसी आँगन में पड़ी
उस कोने की कुर्सी में !
कभी एकदम शांत होकर
अख़बार पढता
कभी संगतियो के चेहरो
की चमक,
एक शोर तो था मगर
बड़ा खामोश सा
एक चहल पहल थी,
कोई अपना लगता था
‘अपना’
जो कभी डाटता था,
चिल्लाता था, सुनाता था
मगर कुछ भी करो हमेशा
‘अपनाता’ था
इसी आँगन में पड़ी
उस कोने की कुर्सी से !
दिन गुजरते गए और
कुर्सी ‘खिजती’ गयी,
शोर - शांत होता गया
और चिल्लाना - खामोश
सुना था बड़ा लम्बा
सफ़र है जिंदगी का 'युगल'
मगर अभी तो जिदगी
का अंकुर'ण ही हुआ था
और कुर्सी का बुढ़ापा
आ गया,
जो कोने में सिमट गया
बुढ़ापे के ‘वाणी’
की मृत ख़ामोशी.
जो सफ़ेद चादर में
सिमट गयी...
अब बस चार दीवारे
और एक आँगन है
एक छत के नीचे,
कोने में पड़ी एक अकेली
कुर्सी के साथ..."खामोश" ..."खामोश"
#YugalVani
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें