हर रोज
दफ्तर में बेवक्त
एक शाम आती
है,
एक जाम लिए
कभी भोजनालय
में
तो कभी
मदिरालय में,
शोर और
अट्ठाहस होता है
हर जगह
जिस्म और तिलस्म का...
फिर घर
मिलता है मुझसे
या
कभी मै
मिलता हूँ घर से
जहाँ कुछ
बेजान चीजे होती है
कुछ अनजान
यादे होती है
और
एक सूनसान
रात के साथ
अकेला ‘मै’...
जहाँ साथ मिलकर ख्वाबो की
एक बड़ी गठरी बनती है
बिगड़ती है
और फिर से बनती है हर ‘रोज’
हर रोज यही होता है
फिर सुबह आती है
मुस्कराते मुस्कराते
और ‘एक और सुबह’ साथ चल देती है
रात के पके ख्वाबो की गठरी लेकर
हर ‘रोज’...
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