''सत्य और साहित्य'' : 'अंकुर मिश्रा' की हिंदी रचानाएँ (कहानियाँ और कवितायेँ )
क्या अब भी दलालो की इस नीति को राजनीती कहेगे : अंकुर मिश्र 'युगल
अब जनता आखिर भरोसा किस पर करे और किस पर न करे, उस नेता पर जो चुनाव के समय लम्बे लम्बे वादे करता है ? या उस पर जो विधायक, सांसद य मंत्री बन जाने के बाद उस क्षेत्र में एक भी बार नहीं आता ? या उस नेता पर जो बेदाग क्षवि होने के बावजूद हजारों घोटलो से लदा होता है ? या उस नेता पर जो वंसवाद की राजनीती से घिरा हुआ हुआ है ?
क्या सोचता होगा वो एकल मनुष्य जिसने पना जीवन देश की सेवा में न्योछावर कर दिया, क्या बीतती होगी उस मनुष्य पर जो खुद राजनीती की परिभाषा बन गया , क्या बीतती होगी उस मनुष्य पर जो देश के सर्वोच्च पद पर रहते हुए भी एक रुपये में पूरा कार्यकाल बिता गया, क्या बीतती होगी जिसने इस लोकतंत्र के निर्माण में अपना पूरा जीवन लगा दिया !
अब सबसे बड़ा प्रश्न यही है की क्या इसी घोटालों की श्रंखला को देखने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगाया था !
पक्ष-विपक्ष की राजनीती बनायीं ताकि वो देश की कमियों को दूर किया जा सके लेकिन नतीजा आज दोनों ने मिलकर देश में गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को दूर करने के लिए नहीं बल्कि वोटबैंक के लिए इस्तेमाल करने की ठान रखी है ! वो कहते है इन मुद्दों को खत्म कर दिया तो वोट कैसे मांगेगे !
अभी हल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवाक संघ और नरेन्द्र मोदी के बिच संगोष्ठी हुयी, साभी जनते है नरेंद्र मोदी की कुछ कमियों को छोड़ दिया जाये तो वो एक विकास पुरुष ही कहलायेगे ! और देश को ऐसे ही संच्लक की जरुरत है ! लेकिन इस संगोष्ठी के बाद नतीजा ये आता है की उन्हें देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नही बनाया जा सकता क्योंकि वो प्रधानमत्री बनाए तो चुनाव लड़ने के मुद्दे खत्म हो जायेगा ! हो सकता है देश में गरीबी, बेरोजगारी और भारश्त्चार जैसे मुद्दों की समाप्ति हो जाये !
इस सोच को क्या कहेगे आज की राजीनीति में राष्ट्र की राजनीती या दलालो की राजनीती ??
वास्तविकता यही है शब्द कुछ भद्दे लगेगे लेकिन देश के आज के राजनेता वास्तव में दलालो का काम ही कर रहे है वो भी भारत को बर्बाद करने वाले दलालो का, इनकी आय तो लाखो में होती है लेकिन खुद की जमापूंजी अरबो में होती है ! ऐसा दलाल जो अमनी माँ का भी अपमान करने से नहीं चूकता ! तरीका कोई भी हो इनके स्विस बैंक के खातों में समात्ति जती रहनी चहिये कहा से और कैसे इससे कोई मतलब नहीं है, शुक्र है उस आम डमी का जिसने जुर्रत और मेहनत की इन दलालों के दलाली के छिट्ठे खोलने की, वरना ये हम तो मौन ही थे और उनके आपसी भाईचारे से ये मौन धंधा चल ही रहा था !
इन सब बातों के बाद भी प्रश्न भी भी यही है हम वोट दे तो किन्हें दे ????
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1 टिप्पणी:
बहुत सुन्दर और सार्थक पोस्ट !
आपकी बात विचारणीय है
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बस सवाल यह है कि हम कब तक अपनी गलतियों को दुसरे पर डालते रहेंगे ? हम कब चेतेंगे ? कब जात-पात, धर्म और क्षेत्रवाद से ग्रसित रहेंगे ? कब तक किसी एक ख़ास राजनैतिक पार्टी के अनुयायी बने रहेंगे ? हम ही तो गलत उम्मीदवार ...भ्रष्ट नेता का चुनाव करते हैं !
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